चाय में शक्कर एक चम्मच लूँ या दो,
तुम अब उसके लिए मुझे टोकती नहीं।
शाम को जरा सी भी देर हो जाने पर,
तुम्हारी वो नाराज़गी गुमशुदा सी है।।
मिलते हैं अक्सर घर के दरवाज़े बंद ही,
शाम को लौटने पर।
बड़े जतन से ढूंढ के चाबी,
उसी पुराने भूरे बैग से;
जब खोलता हूँ दरवाज़े,
तो मायूसी ही पसरी मालूम होती है।
सब कुछ वैसे ही, जैसे सुबह था,
या पिछली शाम,या पिछले दिनों।।
पिछले दिनों जो पौधे तुमने,
रोपे थे बागीचे में,
आकर देखो
उन पर अब फूल खिले हैं ढेरों,
पर बागीचे में नहीं,
दूर तुम्हारी कब्र पर।।
Note; साया -1 is first in the series of "साया " which I am planning to write in coming months. Your comments will inspire me beyond limits.
तुम अब उसके लिए मुझे टोकती नहीं।
शाम को जरा सी भी देर हो जाने पर,
तुम्हारी वो नाराज़गी गुमशुदा सी है।।
मिलते हैं अक्सर घर के दरवाज़े बंद ही,
शाम को लौटने पर।
बड़े जतन से ढूंढ के चाबी,
उसी पुराने भूरे बैग से;
जब खोलता हूँ दरवाज़े,
तो मायूसी ही पसरी मालूम होती है।
सब कुछ वैसे ही, जैसे सुबह था,
या पिछली शाम,या पिछले दिनों।।
पिछले दिनों जो पौधे तुमने,
रोपे थे बागीचे में,
आकर देखो
उन पर अब फूल खिले हैं ढेरों,
पर बागीचे में नहीं,
दूर तुम्हारी कब्र पर।।
Note; साया -1 is first in the series of "साया " which I am planning to write in coming months. Your comments will inspire me beyond limits.
बहुत खूब।
ReplyDeleteबेहतरीन।।
साया पार्ट - १ एक बेहतरीन रचना के रूप में हमारे सामने है। बहुत अच्छा।
ReplyDeleteशुक्रिया। …
DeleteThis is awesome...Ur poems inspire me to start writing again...Brilliant work bhai
DeleteYou should. It is a nice feeling.
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