Wednesday, 21 October 2015
Sunday, 22 March 2015
साया -३...
चाँद आधा है और मैं भी,
अब लिखता हूँ तेरी तलाश में,
सुबह से लेकर शाम
जमीं से लेकर आसमान।
अब हर दिन के बाद
जब रात आती है,
तो मानो ठहर सी जाती है
खालीपन में मेरे दिल के।
पूनम की रातें तो
आती हैं अक्सर ही,
पर चांदनी मेरे आँगन में
अब बरसती नहीं।
अब लिखता हूँ तेरी तलाश में,
कि शायद मेरी कोई नज़्म
पसन्द आएगी तुझे,
और आसमान से उतरकर
फिर एक बार मेरे करीब आये
और मुकम्मल हो जाये मुझमें।
Friday, 13 March 2015
साया -२
कल रात मैं घंटो बैठा रहा
खुले आसमां के नीचे
तुझे ढूंढने के लिए,
इन तारों के बीच
पर नहीं मिली तुम मुझे वहां।
तुम्हारी आवाज़ का रिकॉर्ड याद है
जो बनाया था हमने एक रोज़
उसे सुना तो थोड़ी तसल्ली हुई
और खिलखिलाई होंगी हमारे घर की दीवारें,
बगीचे और दरवाजे भी।
फिर मैंने तुम्हारी डायरी खोली
और तुम वहीँ थीं
तुम्हारी उन दो पसंदीदा
नज़्मों के बीच छिपी हुई।
मैंने एक बार फिर उन नज़्मों को पढ़ा,
और समा लिया तुमको अपने अंदर।
खुले आसमां के नीचे
तुझे ढूंढने के लिए,
इन तारों के बीच
पर नहीं मिली तुम मुझे वहां।
तुम्हारी आवाज़ का रिकॉर्ड याद है
जो बनाया था हमने एक रोज़
उसे सुना तो थोड़ी तसल्ली हुई
और खिलखिलाई होंगी हमारे घर की दीवारें,
बगीचे और दरवाजे भी।
फिर मैंने तुम्हारी डायरी खोली
और तुम वहीँ थीं
तुम्हारी उन दो पसंदीदा
नज़्मों के बीच छिपी हुई।
मैंने एक बार फिर उन नज़्मों को पढ़ा,
और समा लिया तुमको अपने अंदर।
Wednesday, 11 February 2015
साया -1
चाय में शक्कर एक चम्मच लूँ या दो,
तुम अब उसके लिए मुझे टोकती नहीं।
शाम को जरा सी भी देर हो जाने पर,
तुम्हारी वो नाराज़गी गुमशुदा सी है।।
मिलते हैं अक्सर घर के दरवाज़े बंद ही,
शाम को लौटने पर।
बड़े जतन से ढूंढ के चाबी,
उसी पुराने भूरे बैग से;
जब खोलता हूँ दरवाज़े,
तो मायूसी ही पसरी मालूम होती है।
सब कुछ वैसे ही, जैसे सुबह था,
या पिछली शाम,या पिछले दिनों।।
पिछले दिनों जो पौधे तुमने,
रोपे थे बागीचे में,
आकर देखो
उन पर अब फूल खिले हैं ढेरों,
पर बागीचे में नहीं,
दूर तुम्हारी कब्र पर।।
Note; साया -1 is first in the series of "साया " which I am planning to write in coming months. Your comments will inspire me beyond limits.
तुम अब उसके लिए मुझे टोकती नहीं।
शाम को जरा सी भी देर हो जाने पर,
तुम्हारी वो नाराज़गी गुमशुदा सी है।।
मिलते हैं अक्सर घर के दरवाज़े बंद ही,
शाम को लौटने पर।
बड़े जतन से ढूंढ के चाबी,
उसी पुराने भूरे बैग से;
जब खोलता हूँ दरवाज़े,
तो मायूसी ही पसरी मालूम होती है।
सब कुछ वैसे ही, जैसे सुबह था,
या पिछली शाम,या पिछले दिनों।।
पिछले दिनों जो पौधे तुमने,
रोपे थे बागीचे में,
आकर देखो
उन पर अब फूल खिले हैं ढेरों,
पर बागीचे में नहीं,
दूर तुम्हारी कब्र पर।।
Note; साया -1 is first in the series of "साया " which I am planning to write in coming months. Your comments will inspire me beyond limits.
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