तेरह दिन की गहरी धुंध,
और अगली सुबह,
जैसे सुबह ही नहीं हुई।
चारों ओर तम का साया
हे ईश! नहीं कहीं तेरी छाया।।
जीवन हार गया है आज,
विद्रोह- पूरित सम्पूर्ण समाज।
अब जीवित केवल निराशा,
और चुभन लाचारी की;
यही कहानी शेष बची अब,
हिन्दुस्तान की नारी की।।
कैसा है ये अंतर्द्वंद,
क्रोधाग्नि अब क्यूँ रहे मंद।
मानव को मानव बनना होगा।
क्रोधाग्नि में जलना होगा,
अग्नि-परीक्षा तय कर ही इसको,
तपकर सोना बनना होगा।।
और अगली सुबह,
जैसे सुबह ही नहीं हुई।
चारों ओर तम का साया
हे ईश! नहीं कहीं तेरी छाया।।
जीवन हार गया है आज,
विद्रोह- पूरित सम्पूर्ण समाज।
अब जीवित केवल निराशा,
और चुभन लाचारी की;
यही कहानी शेष बची अब,
हिन्दुस्तान की नारी की।।
कैसा है ये अंतर्द्वंद,
क्रोधाग्नि अब क्यूँ रहे मंद।
मानव को मानव बनना होगा।
क्रोधाग्नि में जलना होगा,
अग्नि-परीक्षा तय कर ही इसको,
तपकर सोना बनना होगा।।